अब वे खेत से वापस कभी थके हुए नहीं आयेंगे
न ही वे सुबह मुर्गे की बांग सुनकर, बैलों को हांकते हुए खेत जायेंगे
मेरे बिस्तर में, न ही उनके पसीने की सुगंध कभी और आएगी
न ही सुबह-सुबह वे मुझसे कभी और चाय बनाने को कहेंगे
सूनी मेरी ज़िन्दगी, बस बच्चो की ख़ुशी में कट ही जाएगी
हर दिन हज़ार मौत मर रही हूँ मैं लेकिन
मेरा दोष क्या है, हे भगवान?
क़र्ज़ से तो उन्होंने मुक्ति पा लिया
पर हर रोज मर कर मैं क़र्ज़ की ऋणी हो चुकी हूँ
बच्चे जब कभी एकटक मुझे देखते है शून्य में निहारते हुए
बिना जवाब दिए मेरी आँखों के अश्रु भी अब बहने से डरते हैं
अगर मैं टूट कर बिखर गयी तो उनका क्या होगा
कौन संभालेगा उनको, कौन समझेगा उनकी भोली बातें
बस यूँ ही सर हिला कर मुस्कुरा देती हूँ मैं उनकी ओर
ज़िन्दगी में संघर्ष ही लिखा है अब
मानो उनके रहते जीवन मेरी परियों जैसे थी
एक मैं ही नहीं हूँ विधवा इस संसार में
मेरे जैसे कई ओर बहने है
जो रोज जीते जी हज़ार मौत मर रहे हैं...
६ सितम्बर २०१०
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